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Hindi गुरु तेग बहादुर हिन्द की चादर

Dalvinder Singh Grewal

Writer
Historian
SPNer
Jan 3, 2010
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80
गुरु तेग बहादुर हिन्द की चादर
दलविंदर सिंह ग्रेवाल


गुरु हरगोविंद जी सिक्खों के छठे गुरु थे। इनके पांच बेटे - बाबा गुरदिता, बाबा सूरजमल्ल, बाबा अनी राय, बाबा अटल राय और एक बेटी बीबी वीरो का जन्म भी गुरु के महल में ही हुआ। 5वें सबसे छोटे पुत्र नौवें तेग बहादुर जी थे जिनका जन्म वैशाख वदी 5, संवत 1678 बि: (रविवार, 1 अप्रैल 1621 ई.) को रामदासपुर (श्री अमृतसर) में गुरु हरिगोबिंद जी के महल, माता नानकी जी की कोख से हुआ। ग्यारह वर्ष की आयु में 15 अस्सू संवत 1689 (1632 ई.) को करतारपुर में श्री लाल चंद जी की सुपुत्री गुजरी जी के साथ इनका विवाह हुआ।

गुरु तेग बहादुर जी बचपन में त्यागमल नाम से पहचाने जाते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा मीरी-पीरी के मालिक गुरु-पिता गुरु हर गोविंद साहब की छत्र छाया में हुई। बाबा बूढ़ा और भाई गुरदास द्वारा धार्मिक शिक्षा दी गई। आप बचपन से ही थे कि गुरु हरगोबिंद साहिब जी अमृतसर से करतारपुर आ बसे। आप भी यहाँ आ गए।

करतारपुर ही गुरु हरगोबिंद साहिब जी का चौथा युद्ध वेसाख 29 से 31 के बीच असमान खान झांघड़ी और पैंदे खान के साथ हुआ। (4) करतारपुर की लड़ाई मुग़ल-सिख युद्धों का हिस्सा थी, जो 25 अप्रैल 1635 से 27 अप्रैल 1635 तक करतारपुर में मुग़ल फ़ौजों और सिखों के बीच हुई और परिणामस्वरूप सिखों की विजय हुई। (5) मात्र 14 वर्ष की उम्र में ही अपने पिता के साथ उन्होंने कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में अपना साहस दिखाकर वीरता का परिचय दिया । 26 अप्रैल, 1635 को आप ने गुरु हरगोबिंद जी के सामने करतारपुर के युद्ध में अपनी अज़ीम जौहर व बहादुरी दिखाई और अपने पहले नाम त्याग मल को तेग बहादुर बना लिया, जब गुरु हरगोबिंद जी ने कहा: "तू त्याग मल ही नहीं, तू तो तेग बहादुर भी है।" (8,9,10) गुरु हरगोबिंद जी के सामने आप करतारपुर में और फिर कीरतपुर साहिब में रहकर जप-तप, साधना और सेवा का पाठ लगातार 11 वर्षों, सन 1635 से 1644 तक पढ़ते रहे। इसी समयावधि में उन्होंने गुरुबाणी, धर्मग्रंथों के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र और घुड़सवारी आदि की शिक्षा प्राप्त की।

गुरु हरि राय जी को गुरुगद्दी प्राप्त होने के बाद उन्हें माता नानकी सहित बाबा बकाला में रहने का आदेश हुआ। बकाला गुरु तेग बहादुर जी के नानके थे। नानकी जी के पिता हरि चंद जी वहीं रहते थे। माता नानकी जी घर में माता गुजरी जी के साथ ही थीं। गुरु जी ने यहाँ 12 वर्ष, सन् 1644 से 1656 तक घोर तपस्या की। जब बाबा बकाला में उन्होंने कठोर तप किया और कई साल ध्यान तथा प्रार्थना में बिताए तो उनकी तपस्याओं की महिमा बढ़ी। आप गुरुगद्दी पर 11 अगस्त 1664 को सुशोभित हुए। धर्म की रक्षा के लिए आप बुधवार, 24 नवम्बर 1675 को चांदनी चौक, नई दिल्ली में शहीद हुए। शहादत से पहले ही आपने अपने साहिबज़ादे गुरु गोबिंद सिंह को गुरुगद्दी सौंपी। गुरु जी की बाणी के 15 रागों के 116 शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं।

गुरु तेग बहादुर जी एक बहादुर, निर्भीक, विचारवान और उदार चित्त के थे। गुरु तेग बहादुर जी को सिख धर्म में क्रांतिकारी युग पुरुष के रूप में जाना जाता है, तथा मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर अपना समस्त जीवन बलिदान करने वाले होने के साथ-साथ उनका जीवन शौर्य से भरा हुआ है। विश्व इतिहास में धर्म, मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। सचमुच यदि सम्पूर्ण दुनिया में सच्चे गुरु के जीवन की गाथा पढ़ी जाएगी तो गुरु तेग बहादुर जी की गाथा सबसे ऊपर रखी जायेगी।

गुरु नानक देव जी ने न केवल पूरे भारत की यात्रा की बल्कि दुनिया के कई देशों की भी यात्रा की और सतनाम का उपदेश दिया। गुरु तेग बहादुर जी ने न केवल पूर्व में गुरु नानक देव जी की यात्रा को ताज़ा किया, बल्कि आस-पास के अन्य शहरों में भी सतनाम का उपदेश दिया। इसके अलावा पूरा मालवा भी इसमें शामिल हुआ। बाबा बकाले से गुवाहाटी हजो तक, गुरु जी ने एक लंबी यात्रा करते हुए सतनाम का उपदेश दिया। गुरु तेग बहादुर जी की इस साहसिक यात्रा और नाम प्रचार करने की प्रथा ने उस समय के शासक औरंगजेब को भी चौंका दिया। जिसने सब कुछ केवल एक रहस्यवादी की आँखों से देखा, गुरु जी इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म की बात कैसे कर सकते थे। समय-समय पर उन्होंने गुरु जी को कैद किया और फिर शहादत के आदेश जारी किए। वे जानते थे कि गुरु जी के धर्म का उपदेश गुरु जी की अद्वितीय शहादत से समाप्त नहीं होना था, बल्कि यह सिख सेवकों का काम था कि वे लौ को जलाते रहें। गुरु जी की शहादत की यात्रा भी गुरु जी के सिखों के लिए एक मार्ग बन गई। इसके विपरीत, यदि हम गुरु जी के जीवन को देखें, तो यह स्पष्ट है कि गुरु जी के आरोहण के बाद का अधिकांश जीवन नाम-दान-यात्रा में से एक है।

उस समय के मानकपुर के महंत मलूक दास एक सवाल के जवाब में गुरु जी की यात्रा के बारे में लिखते हैंः "सिख धर्म का जो बीज गुरु नानक ने ब्रह्म पुत्र नदी के पार बोया था, गुरु तेग बहादुर जी तीर्थयात्रा के बहाने उसे पानी देने जा रहे हैं। वे लोग देशों की दूरी के कारण पंजाब नहीं आ सकते। वे दर्शन के लिए बैठे हैं। किसी ने एक सुंदर बिस्तर बनाया है और उसे मखमल के तकिए से सजाया है और कसम खाई है कि हम तब तक बिस्तर पर नहीं उतरेंगे जब तक कि हम गुरु जी को उस पर बैठे नहीं देखेंगे। कई लोगों ने सुंदर मंदिर बनाए हैं और गुरु जी के चरणों तक पहुंचने तक जीवित नहीं रहने का संकल्प लिया है। कई लोगों ने महंगे परिधान बनाए हैं और वे तभी पहनेंगे जब गुरु जी इन वस्त्रों को नहीं पहनेंगे। सिखों की भक्ति और प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए, गुरु जी मेघ नदी जैसे जीवित प्राणियों को प्रसन्न करने के लिए सिखों के पास गए हैं “।

भट्ट वही पूर्वी दक्षिण के अनुसार, "तेग बहादुर जी दिल्ली में गुरु हरकिशन जी से मिले और धर्मशाला भाई कल्याण दास में डेरा डाला। यह गुरुगदी मिलने से पहले गुरु की पहली दिल्ली यात्रा को संदर्भित करता है। 30 मार्च, 1664 को गुरु हरकिशन जी ज्योति–जोत । गुरियाई की सभी सामग्री जैसे नारियल, पाँच पैसे आदि। द्वारका दास के पुत्र दर्या मल्ल को समाने से पहले 'बाबा बकाले' कह कर गुरु तेग बहादुर जी को गुरुगदी की जिम्मेदारी सौंपने का इशारा किया जिस पर यह निर्णय लिया गया था कि दरिया मल्ल को बकाला जाना चाहिए और मर्यादा के अनुसार गुरगदी सौंपनी चाहिए। माखन शाह लुबाना ने 8 अक्टूबर 1664 को ‘गुरु लाधो रे’ की पुकार कर नकली गुरुओं के भ्रम को तोड़ दिया। इससे पहले 11 अगस्त 1964 को बाबा बुद्ध जी के पोते बाबा गुरदिता जी ने तिलक लगाकर गुरु तेग बहादुर साहिब जी को गुरुगदी को सौंप दिया ।

जब धीरमल ने ईर्ष्या और शत्रुता दिखाई, तो गुरु जी बकाला छोड़कर अमृतसर चले गए, लेकिन पुजारियों ने उनकी नौकरी को खतरा माना और स्वर्ण मंदिर के मुख्य द्वार बंद कर दिए। बाहर से ही सरोवर में सनान कर के गुरु जी ने जाते समय मसंदों के प्रती कहा

नहीं मसंद तुम अंम्रित सरीए॥त्रिशना मन ते अंतर सड़ीए॥​

वल्ला साहिब से वे करतारपुर साहिब, कीरतपुर साहिब होते हुए माखोवाल पहुँचे, जहाँ 19 जून 1665 को उन्होंने चक-नानकी बसाया, जो बाद में आनंदपुर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ, क्योंकि बाद में जब बाल गोबिंद पटना से चक नानकी आए, चक नानकी में प्रवेश करते हुए उन्होंने संगत के साथ आनंद साहिब के पांच श्लोकों का पाठ किया, "आनंद भया मेरी माए सतगुरु मैं पाया" शब्द सुनकर गुरु तेग बहादुर जी ने कहा, "यह अब चक नानकी नहीं बल्कि आनंदपुर है।

गुरु की यात्रा में तीन क्षेत्र शामिल थेः मालवा क्षेत्र, बांगर क्षेत्र और पूर्वी क्षेत्र। कुछ लेखकों ने चक नानकी के बसने से पहले मालवा क्षेत्र की यात्रा का समय दिया है और कुछ ने गुरगड्डी के अधिग्रहण से पहले बांगर देश का समय दिया है जब वे दिल्ली में गुरु हरकिशन जी से मिले थे। इस संबंध में गुरु की गिरफ्तारी के बारे में एक और गलत धारणा है। भट-वही 8 नवंबर, 1665 को धमतान में गुरु की कैद का उल्लेख करते हैं।

“गुरु तेग बहादुर जी, महल 9 को नगर धमधाण परगना बांगर से आलमखान रुहेला शाही हुक्म से दिल्ली लेकर आए। वर्ष सत्रह से बाईस कातक सूदि ग्यारहस को बुधवार को दिए गए: साथ में मती दास, सती दास के पुत्र हीरामल छिब्बर, गुलाब दास के पुत्र छुट्टे मल छिब्बर, गुरदास के पुत्र कीर्त बरतिये, संगत के पुत्र बिन्ने उप्पल, जेठा दयाल दास के पुत्र मती दास, जल्हाणे बलौती और अन्य सिख फकीर आए।” (वही जादो बंसीया की — (यादव वंश की) काटक सूदि एकादशी विक्रमी 1722 (8 नवम्बर 1665)

दूसरी बार गुरु जी को 12 जुलाई 1675 को रोपड़ के पास मलकपुर स्थान पर कैद किए जाने का हवाला इस प्रकार मिलता है: “गुरु तेग बहादुर जी, महल नवें को, नूर मुहम्मद मिर्ज़ा चौंकी रोपड़ वाले ने साल सत्तरा सौ बत्तीस सावन प्रबिष्टे बारह, मदनपुर परगना घनौला से पकड़ कर सरहंद पहुँचाया। साथ: सतीदास, मतीदास बेटे हीरा मल छिब्बर के; साथ दयाल दास बेटा माई दास बलौंत का पकड़ा आया। चार माह सरहंद और दिल्ली बंदीख़ाने में रहे।” (भटाखरी नकल से नकल की गई—ज्ञानि गरजा सिंह ने भट्ट वही मुल्तानी सिंधी, ख़ाता बलौंतो को) इसी की पुष्टि भट्ट वही पूरबी-दक्षिणी से भी होती है जिसमें ‘बंझरौत जल्हाणे’ के नीचे यह लेख दर्ज है। पर कई इतिहासकार गुरु जी को आगरा (गुरु का ताल) में कैद बताते हैं और यह भी कहते हैं कि गुरु जी उस जगह माई जस्सी की रीझ पूरी कर थान स्वीकार करने पहुँचे थे (उसका नाम माईथान कर के प्रसिद्ध है) और एक मुस्लिम चरवाहे की यह उम्मीद कि “अगर गुरु जी मेरे हाथों कैद हों तो इनाम मुझे मिलेगा” पूरी करने गए थे। गुरुद्वारा गुरु का ताल, आगरा में वह भोरा आज भी दिखाया जाता है जहाँ गुरु जी को कैद किया गया था। पर यहाँ कैद किए जाने का समय ठीक नहीं बैठता।

संभव है कि जब गुरु तेग बहादुर जी पूर्व की ओर जा रहे थे और आगरा पहुँचे तो उस समय भी उन्हें वहां के हाकिम ने कैद कर लिया था, क्योंकि गुरु जी की गिरफ्तारी के समय ढोल-ढमाका किया गया होगा या इनाम भी रखा गया होगा। यह बात उन हाकिमों तक पता नहीं लग पाई होगी कि “गुरु जी को धमकाकर गिरफ्तार कर के जब दिल्ली लाया गया, तो कोई अपराध सिद्ध नहीं होने पर या राजा मान सिंह की सिफारिश पर छोड़ दिया गया। गुरु तेग बहादुर जी आगरा गए ही थे—इसमें कोई दो राय नहीं है। आगरा वाले बाबा साधू सिंह मोनी और अन्यों ने गुरु जी की आगरा में गिरफ्तारी की तारीख असू की पूर्णिमा बिक्रमि 1732 बताई जो भट्ट वाहियों के अनुसार किसी भी रूप में मेल नहीं खाती। गुरु जी की मालवा और बांगर की यात्रा के बारे में भी कई इतिहासकार भ्रमित हुए क्योंकि वे गुरु जी की आगरा से बंदी होने की घटना को बांगर की यात्रा के समय से जोड़ देते हैं। भट्ट वाहियों के अनुसार गुरु जी 12 जुलाई 1675 को... गुरु जी का भट्टवही अनुसार 12 जुलाई 1675 को मलकपुरों में कैद होना, चार महीने सरहिंद और दिल्ली की कैद में रहना और 11 नवंबर 1675 को दिल्ली में शहादत पाना एक अटूट कड़ी है जिसके साथ किसी यात्रा का संबंध जोड़ना गलत होगा। गुरु जी को गुरुवाई भले ही 3 मार्च 1664 को गुरु हरिकृष्ण जी के ज्योति–जोत समेपन के बाद ही प्राप्त हुई पर इसका सही निर्णय 8 अक्टूबर 1664 को मखन शाह लुबाने के ‘गुरु लाधो रे’ की पुकार के बाद ही हुआ। गुरुगद्दी की जिम्मेदारी आपने 11 अगस्त 1664 को बाबा गुरदित्ता जी ने तिलक लगा कर संभाल दी थी (डा. दिलीप सिंह दीप ने यह तारीख 20 मार्च 1665 लिखी है जो सही नहीं है क्योंकि गुरु जी गुरुगद्दी के बाद 22 नवम्बर 1664 को अमृतसर साहिब गए) (गुरु तेज बहादुर जी—जीवनदर्शन और रचना, पृष्ठ 12)। इसके बाद आप अमृतसर से होते हुए कीरतपुर गए और 19 जून 1665 को चक्क- नानकी की नींव बाबा गुरदित्ता जी से रखवाई। जो इतिहासकार गुरुगद्दी संभालने के बाद चक्क- नानकी बसाने में बीते समय को गुरु जी का मालवा देश में प्रचार करने का समय मानते हैं वे भूल करते हैं क्योंकि ये आठ महीने इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं थे जिनमें गुरु जी ने अपनी नई जिम्मेदारी सँभालना, चक्क- नानकी के लिए जमीन खरीदना, पैसे का जुगाड़ करना आदि जिम्मेदारियाँ भी शामिल थीं। ज्ञानि ज्ञान सिंह और दूसरों ने भी लिखा है कि गुरु जी अमृतसर से कीरतपुर, माखोवाल, माता किशन कौर के आह्वान पर आए थे। इसके साथ ही यदि यह ध्यान में रखा जाए कि गुरु जी को धमतान से 8 नवंबर 1665 को बंदी बनाया गया था, और चक्क-नानकी की नींव रखने के बाद केवल ढाई चार महीने का समय ही बचता है, तो यह बात सामने आती है कि गुरु जी ने मालवा के प्रचार के लिए अधिकतम ढाई चार महीने ही लगाए। धमतान से बाद गुरु जी को दिल्ली लाया गया जहाँ वे राजा मान सिंह की गवाही से रिहा हुए और कुछ समय उसी के महल में रुक कर फिर पूरब की ओर गए। इलाहाबाद में उनका सर्दियाँ कटाने (दिसंबर 1665 से मार्च 1666 तक) का उल्लेख मिलता है, जिसके बाद जून से अगस्त 1666 तक वे पटना साहिब में रहे। पूरब की प्रचार यात्रा से वापसी मार्च 1671 की है और फिर 25 मई 1675 को कश्मीरी पंडितों का अर्ज़-गुज़ारना और 12 जुलाई 1675 को मलकपुर गिरफ्तारी की तिथियाँ दर्ज हैं।

उपरोक्त तिथियों से मालवा और बांगर में गुरु के उपदेश का समय इस प्रकार हैः -

(a) दिसंबर 1664 से मई 1665 (छह महीने)
(b) जुलाई 1665 से अक्टूबर 1665 (चार महीने)
(c) मार्च 1671 से अप्रैल 1675 (चार वर्ष और एक माह)

धमतान में गुरु जी की गिरफ्तारी (8 नवंबर 1665) यह साबित करती है कि गुरु जी उस समय बांगर देश के प्रचार दौरे पर थे। आनंदपुर साहिब से धमतान तक की तीर्थयात्रा इस अवधि से संबंधित हो सकती है, जो नानकी-चक की नींव के बाद हुई थी। एक किंवदंती के अनुसार, काबल देश की एक मंडली मालवा के एक गाँव समतौ में गुरु जी से मिलने आई थी, जो दर्शन के आकांक्षी आनंदपुर साहिब से आए थे। इसका मतलब है कि गुरु मालवा से आनंदपुर साहिब आए थे। मालवा से गुजरते हुए, गुरु जी बांगर देश की ओर बढ़े, लेकिन उन्हें धमतान में कैद कर लिया गया और दिल्ली ले जाया गया, जिसके बाद गुरु पूर्व की ओर बढ़े। आनंदपुर साहिब से धमतान तक, गुरु जी इन गाँवों से गुजरते थे।

आनंदपुर साहिब, कीरतपुर, भरतपुर, घनौली, रोपड़, भठा साहिब, मोरिंडा, टहिलपुरा, सरहंद, हरपालपुर, आकड़, नथाणा, मकारोंपुर, अनंदपुर, उगाणी, धरमगड़्ह, मंगवाल उडनी, मनीमाजरा, हसनपुर, लंघ, भगड़ाणा, नौलखा, सैफाबाद, धरमगढ, नरड़ू, मोतीबाग पटिआला, सींभड़ों, अगोल, रोहटा, रामगढ, गुणीके, दोदड़ा, आलोहरख, भवानीगड़्ह, ढोडे, फगूवाला, नागरा, करहाली, दिढबा, घनौड़ जटां, बाउड़ हाई, राजोमाजरा, मूलोवाल, सेखा, कटू, फरवाही, हंढिआइआ, गुरूसर, धौला, जोगा अलीशेर, जोधेको, भंदेर, भोपाली, मौड़ कलां, ( 40 दिन) भैणी बाघे की, घुमंण – साबो के मोड़, डिख, कुबे (दस दिन) टाहला साहिब, कोट गुरू बाजल, जसी, तलवंडी साबो की, मईसरखाना, बठिंडा, खीवा कलां, समाओ, भीखी, दलेओ, कणकवाल कलां, कोट शरमू, सूलीसर, बरे बछोआणा, गोबिंदगढ, गंढू, गाग मूणक, गुरने कल्हां, लल्ह कलां, शाहपुर धमताण

बसी पठाणा, चंनणा, सोढल-सोढैल, तंदोवाल, लखनौर, मकारपुर, कबूलपुर, ननहेड़ी, लहिल, दुख निवरन, गढI गुहला, भागल, करहाली, चीका, बुधपुर, सिआणा सयदां, समाणा, कर्हा, बीबीपुर, पहोआ, खारक, खटकड़, जींद, लाखण माजरा, रोहतक, मकरोड़, खनौर, बहर जख, कैंथल, बारना, थानेसर, झीउरहेड़ी, बनी, बदरपुर, करनाल, कड़ा मानकपुर, गढ नज़ीर, राइपुर हेड़ी, तराउड़ी, खड़कपुरा, इतिआदि

मालवा में अपने उपदेश यात्रा के दौरान, गुरु जी को 8 नवंबर, 1665 को दिल्ली ले जाया गया, जब राजा मान सिंह ने हस्तक्षेप किया और उन्हें रिहा कर दिया, जिसके बाद गुरु राजा मान सिंह की हवेली में रहे और यहां कुछ दिनों तक रहने के बाद, वे मथुरा, आगरा, इटावा, कानपुर, फतेहपुर आदि से होते हुए दिसंबर 1665 में इलाहाबाद पहुंचे। इलाहाबाद के मिर्जापुर से गुजरने के बाद बनारस पहुंचे जहाँ दो सप्ताह तक रहे। बनारस से सासाराम और बोध गया होते हुए वे मई 1666 में पटना पहुंचे और मैकॉलिफ के अनुसार तीन महीने (जून से अगस्त 1666) तक पटना में रहे। यहीं पर वे असम जाते समय राजा राम सिंह से मिले और गुरु जी से अपने साथ जाने का अनुरोध किया, जिसके बाद वे अक्टूबर 1666 में ढाका पहुंचे। जब बाल गोविंद का जन्म 22 दिसंबर, 1666 को हुआ था, तो गुरु जी को यह जानकारी भाई मिहिर चंद और भाई कल्याण दास के माध्यम से मिली थी। पटना से उन्होंने मुंगेर, भागलपुर, कोलगांव, राजमहल, संत नगर, मालदा, राजधानी और पबना होते हुए यात्रा की।

ढाका से गुरु उपदेश देने के लिए सिलहट गए। इसके बाद वे चिटागाँव पहुँचे जहाँ वे 1667 के अंत तक रहे। जनवरी 1668 में वे फिर से ढाका लौट आए जहाँ वे रुके और नाम का प्रचार किया। वे ढाका से राजा राम सिंह के साथ दिसंबर 1668 में असम गए और फरवरी 1669 में धुबरी पहुंचे। मार्च 1669 में अहोम राजा चक्रध्वज सिंह और राजा राम सिंह की सेनाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ। गुरु जी की मध्यस्थता से दोनों राजाओं के बीच शांति स्थापित हुई। राजा चक्रध्वज सिंह के निमंत्रण पर गुरु गुवाहाटी-हजो और तेज़पुर गए।

गुरु जी तब भी असम में थे, जब 9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने फैसला सुनाया कि गैर-मुसलमानों के मंदिरों को ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए। "यह बात जारी रही। जैसे ही स्थिति प्रतिकूल होती गई, गुरु जी लौट आए और ढाका (अप्रैल 1670), कलकत्ता, मिदनापुर, बालासोर, रूपसा, कटक, भुवनेश्वर, जगन्नाथ पुरी, विष्णुपुर, बकुरा, गोमो से गया होते हुए फिर से पटना (1670 ईस्वी) पहुंचे। इस समय 'बाल गोविंद' चार साल का हो चुका था।

20 जून, 1670 को वह गंगा के उत्तरी तट से जौनपुर, अयोध्या, लखनऊ, शाहजहांपुर और मुरादाबाद होते हुए दिल्ली पहुंचे। परिवार को वापस लाने के लिए जोनपुर, लखनऊ, लखनऊ, शाहजान, शाहमनाबाद, शुखारू, शाहजानपुर, 1670 ई., 31 ई. 1670 ई. में आया। ਗੂਲ੍ਹਾ, ਗੜ੍ਹੀ नजीर, समाना आदि रहते हुए सफाबाद से होते हुए मार्च 1671 में आनंदपुर पहुंचे।





जहाँ से वे कड़ामानकपुर, सढोल, बानिकपुर, रोहतक, तरावड़ी, बणी बदरपुर, मुनीरपुर, अजराणा कलां, राइपुर होड़ी, झीउर हेड़ी, रोहड़ा, थान तीरथ, दड्डी, बुधपुर, सियाना सैयद, थानेसर, कुरखेत्र, बरना, सरसवती, कैथल, पहोआ, करा साहिब, चीका, भागल, गुल्ला, गढ़ी नजीर, समाना आदि होते हुए मार्च 1671 में सैफाबाद होते हुए आनंदपुर लौट आए जहाँ उन्होंने अपने परिवार के आने का इंतजार किया और साथ ही वे आनंदपुर साहिब में नाम-प्रचार संस्थान के आयोजन में लगे हुए थे।

उन्हीं दिनों दिल्ली की मुगल सत्ता, शाहजहाँ के हाथों से निकलकर, अत्यंत निर्दयी व क्रूर औरंगज़ेब के हाथों में जा चुकी थी। वह अपने 3 भाई और 2 भतीजों की हत्या कर गद्दी हासिल कर चुका था। वह अपने राज में चारों तरफ़ अत्याचार करने लगा था।

औरंगज़ेब ने कश्मीरी हिंदुओं पर भी अत्याचार करना शुरू कर दिया था। माताओं-बहनों पर ज़ुल्म होने लगे। ऐसी विकट परिस्थितियों में सम्पूर्ण भारत के हिन्दू पंडितों के लिए श्री तेग बहादुर जी साहब के अलावा कोई और सहारा नहीं रह गया था।

यहाँ ही कृपा राम कश्मीरी पंडितों के साथ 25 मई 1675 को एक अनुरोध के साथ प्रकट हुए। । रोते बिलखते, अत्याचार सहते, मदद की गुहार लगा रहे हिंदुओं की व्यथा सुनकर तेग बहादुर जी अधीर हो उठे। इसी बीच तेग बहादुरजी के 8 साल के बेटे गोविंद सिंह वहाँ आ गए। उन्होंने अपने पिता से पूछा कि क्या इस समस्या का अब कोई समाधान नहीं हो सकता? तेग बहादुर जी ने कहा कि इस अत्याचार से छुटकारा पाने के लिए किसी न किसी महापुरुष को तो कुर्बानी देनी ही होगी।तभी उनके पुत्र ने फौरन कहा कि 'आप से बढ़कर कोई महापुरुष हो सकता है भला।' बच्चे के इस तेजस्वी जवाब से तेग बहादुर जी गदगद हो गए। और पंडितों से कह दिया कि जाओ उस निर्दयी से कह दो कि पहले वो हमसे धर्म परिवर्तन की बात करें, फ़िर दूसरों पर अत्याचार करे।

इस संदेश से भड़ककर औरंगज़ेब ने तेग बहादुर जी को दिल्ली आने का हुक्म दे दिया। समय की नज़ाकत को देखते हुए गुरु तेग बहादुर अपने पुत्र को अपनी गुरु गद्दी सौंपकर दिल्ली के लिए निकल पड़े। लेकिन निकलते समय उनके साथ उनके भाई मतिदास, दयालदास, सतीदास और भाई जयता भी शहादत का चोला पहने निर्भयता के साथ अन्तपुर साहिब से निकल पड़े। वहीं रास्ते में दीन दुःखियों की मदद करते हुए कुँए, बावड़ियों का निर्माण कराना जारी रखा।

गुरु औरंगज़ेब को अपनी ओर आता देख, साथ ही समस्त भारत की जनता का प्यार पाता देख औरंगज़ेब गुस्से से भौखला गया। उसमें फ़ौरन तेग बहादुर और उनकी टीम को बंदी बनाकर दिल्ली लाने का हुक्म दे दिया।

इस तरह बंदी बनाकर उन्हें दिल्ली लाया गया। जहाँ तीन दिनों तक उन्हें व उनके शिष्यों को पानी तक नहीं दिया गया। दिल्ली की कोतवाली के पास गुरुजी व उनके शिष्य लाये गए। यहाँ लाकर उन्हें धमकी दी गयी कि अगर उन्होंने धर्म परिवर्तन नहीं किया तो उनको उनके सभी साथियों के साथ कत्ल कर दिया जाएगा। लेकिन गुरु तेग बहादुर जी के चेहरे पर डर की कोई शिकन तक नहीं थी।

ऐसे में औरंगज़ेब की बौखलाहट बढ़ती चली गयी। उसने एक-एक कर गुरु तेग बहादुर जी के साथियों की हत्या करना शुरू कर दिया। धर्म परिवर्तन के लिए राज़ी करने के लिए उनके ही सामने उनके भाई मतिदास को आरी से काटकर मार डाला गया। उसके बाद दयालदास को भी खौलते पानी में डालकर मार डाला। उसने भी हँसते-हँसते शहादत क़ुबूल की लेकिन वे अपनी बात पर अडिग रहे।

गुरु तेग बहादुर जी औरंगज़ेब के सामने नहीं झुके और अपने शिष्यों के अद्भुत बलिदान का गुणगान करते रहे। इसके बाद भाई सतीदास को भी रुई से लपेटकर उनके ही सामने जला दिया गया। लेकिन गुरुजी फ़िर भी अपनी बात पर अडिग रहे।

इस तरह गुरु तेग बहादुर के सभी भाइयों ने मुस्कुराते हुए मौत को गले लगा लिया। लेकिन अपना धर्म नहीं बदला। अंतिम सांस तक बस यही कहते रहे कि 'भले जान चली जाये पर अपना सिख धर्म कभी न जाये।'

अंत में औरंगज़ेब ने गुरु तेग बहादुर जी को भी कलमा पढ़ अपना धर्म परिवर्तन करने पर ज़ोर डालना शुरू किया। गुरु तेग बहादुर जी ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा कि "धर्म त्याग करने से ज़्यादा बेहतर यही होगा कि मैं शहादत स्वीकार कर लूँ।" गुरु तेग बहादुरजी के इस अटल जवाब को सुन औरंगज़ेब गुस्से से आगबबूला हो गया। और उनका सिर कलम करने का हुक्म जारी कर दिया।

इस तरह इस्लाम स्वीकार नहीं करने के कारण, मुगल शासक औरंगज़ेब ने सन 1675 में, चाँदनी चौक में सबके सामने, सुबह-सुबह गुरुजी के सिर को धड़ से अलग करवा दिया। जो कि औरंगज़ेब की बौखलाहट और उसकी हार का नतीजा था। क्योंकि वह जीते जी इनमें से किसी का भी धर्म परिवर्तन नहीं करा सका। उसका घमंड चूर-चूर हो चुका था।

उनकी शहादत 11 नवंबर 1675 को चांदनी चौक (वर्तमान सस गंज गुरुद्वारा का स्थल) में कुतवाली के सामने हुई थी। भाई जैता जी ने गुरु जी का सिर उठाया और पांच चरणों में बागपत, तरावरी (करनाल) अनाज मंडी, अंबाला, नभा साहिब (चंडीगढ़) और कीरतपुर से होते हुए आनंदपुर साहिब तक पहुँचाया।इस तरह सिख धर्म के 9वें धर्म गुरु ने सिख धर्म को बचाने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी अपनी शहादत क़ुबूल कर लिया। गुरुजी के धड़ को अपने घर में रखकर अपने घर में आग लगा दी।भाई लाखी शाह गुरु जी के पार्थिव शरीर को चांदनी चौक से अपनी जागीर तक ले गए और उस घर के साथ आग लगाकर पवित्र शरीर का अंतिम संस्कार किया जहां वर्तमान रकाब गंज साहिब गुरुद्वारा स्थित है। इस तरह गुरु तेग बहादुर जी ने 10 साल, 7 महीने, 7 दिन पूरे किए और 54 साल, 7 महीने और 7 दिन पूरे किए।

गुरु नानक देव जी ने न केवल पूरे भारत की यात्रा की बल्कि दुनिया के कई देशों की भी यात्रा की और सतनाम का उपदेश दिया। गुरु तेग बहादुर जी ने न केवल पूर्व में गुरु नानक देव जी की यात्रा को ताज़ा किया, बल्कि आस-पास के अन्य शहरों में भी सतनाम का उपदेश दिया। इसके अलावा पूरा मालवा भी इसमें शामिल हुआ। बाबा बकाले से गुवाहाटी हजो तक, गुरु जी ने एक लंबी यात्रा करते हुए सतनाम का उपदेश दिया। उनके जीवन का प्रथम दर्शन यही था। उनका मानना भी यही था कि "धर्म का मार्ग सत्य और विजय का मार्ग है।" इन्होंने लोगों को प्रेम, एकता व भाईचारे का संदेश दिया। वैसे भी गुरु तेग बहादुरजी शांति, क्षमा, सहनशीलता जैसे गुणों के धनी थे।

सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए गुरु तेग बहादुर जी ने कई स्थानों का लगातार भ्रमण किया। अनंतपुर से कीरतपुर, रोपड, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहजता के मार्ग का ज्ञान दिया।गुरुजी की यात्रा यहीं नहीं रुकी बल्कि धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए वे दमदमा से होते हुए कुरुक्षेत्र भी पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर जाकर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का भी उद्धार किया। उस समय के मानकपुर के महंत मलूक दास एक सवाल के जवाब में गुरु जी की यात्रा के बारे में लिखते हैंः "सिख धर्म का जो बीज गुरु नानक ने ब्रह्म पुत्र नदी के पार बोया था, गुरु तेग बहादुर जी तीर्थयात्रा के बहाने उसे पानी देने जा रहे हैं। वे लोग देशों की दूरी के कारण पंजाब नहीं आ सकते। वे दर्शन के लिए बैठे हैं। किसी ने एक सुंदर बिस्तर बनाया है और उसे मखमल के तकिए से सजाया है और कसम खाई है कि हम तब तक बिस्तर पर नहीं उतरेंगे जब तक कि हम गुरु जी को उस पर बैठे नहीं देखेंगे। कई लोगों ने सुंदर मंदिर बनाए हैं और गुरु जी के चरणों तक पहुंचने तक जीवित नहीं रहने का संकल्प लिया है। कई लोगों ने महंगे परिधान बनाए हैं और वे तभी पहनेंगे जब गुरु जी इन वस्त्रों को नहीं पहनेंगे। सिखों की भक्ति और प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए, गुरु जी मेघ नदी जैसे जीवित प्राणियों को प्रसन्न करने के लिए सिखों के पास गए हैं “।यहाँ से गुरु श्री तेग बहादुर जी प्रयाग, बनारस, असम, पटना आदि क्षेत्रों में गए। वहाँ उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक उन्नयन के लिए अनेक रचनात्मक कार्य किये। आध्यात्मिक स्तर पर असंख्य लोगों में धर्म का सच्चा ज्ञान बाँटा। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों की कटु आलोचना करते हुए उन्होंने नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने प्राणी सेवा एवं परोपकार के लिए कुँए, बावलियाँ आदि खुदवाए और अनेक धर्मशालाओं का निर्माण भी कराया। उन्होंने देश की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए कई कुर्बानियां दीं लेकिन कभी समझौता नहीं किया। वे अपने निश्चय पर हमेशा ही अडिग रहे।

गुरु तेग बहादुर जी की इस साहसिक यात्रा और नाम प्रचार करने की प्रथा ने उस समय के शासक औरंगजेब को भी चौंका दिया। जिसने सब कुछ केवल एक रहस्यवादी की आँखों से देखा, गुरु जी इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म की बात कैसे कर सकते थे। समय-समय पर उन्होंने गुरु जी को कैद किया और फिर शहादत के आदेश जारी किए। वे जानते थे कि गुरु जी के धर्म का उपदेश गुरु जी की अद्वितीय शहादत से समाप्त नहीं होना था, बल्कि यह सिख सेवकों का काम था कि वे लौ को जलाते रहें। गुरु जी की शहादत की यात्रा भी गुरु जी के सिखों के लिए एक मार्ग बन गई। इसके विपरीत, यदि हम गुरु जी के जीवन को देखें, तो यह स्पष्ट है कि गुरु जी के आरोहण के बाद का अधिकांश जीवन नाम-दान-यात्रा में से एक है।

पुस्तकों की सूची

1. सतबीर सिंह (प्रस्तावना) हमारा इतिहास (भाग I) नई पुस्तक कंपनी, माई हीरा गेट, जालंधर,

1957

2. सतबीर सिंह (प्रा.) (संपादक, गुरु तेग बहादुर स्मृति ग्रंथ श्री गुरु तेग बहादुर तीन सौ साल की

शहादत गुरपुरब समिति 1969)

3. सरूप दास भल्लाः महिमा प्रकाश (भाग II) भाषा विभाग पंजाब, पटियाला 1971

4. साहिब सिंह (प्रो.) गुरु इतिहास, सिंह ब्रदर्स, माई सेवा, अमृतसर 1668

5. हरदीप सिंहः श्री गुरु तेग बहादुर दर्शन, भाषा विभाग, पंजाब 1971

6. ज्ञान सिंह ज्ञानी, तौरीख गुरु खालसा, भाषा विभाग, पंजाब, 1970

7. त्रिलोचन सिंह (डॉ.) संक्षिप्त जीवनी गुरु तेग बहादुर, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन बोर्ड, दिल्ली

1973

8. दलीप सिंह दीप (डॉ.) गुरु तेग बहादुर दर्शन और रचना पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना

1975,

मासिक पत्र

9. सिंह सभा पत्रिकाः जनवरी 1976, फरवरी 1976, गुरु तेग बहादुर अंक 1 और 2, केंद्रीय सिंह

सभा, अमृतसर।

10. पंजाबी दुनियाः जनवरी, फरवरी 1976 (गुरु तेग बहादुर मुद्दा) भाषा विभाग, पटियाला।
 
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